भावहीन सा एक वृद्ध,
बैठा था बगिया किनारे,
वृक्ष से छनती धूप,
पड़ रही थी उसके,
व्यथित चेहरे पे,
घंटों से शून्य में,
निहार रहा था,
न जाने कुछ,
सोच रहा था,
या किसी गणना,
में व्यस्त था,
आते जाते लोग,
बच्चों का शोर,
कोई भी उसके,
ध्यान को भंग ,
नहीं कर पा रहा था।
आकाश में क्या ढूंढ रहा है,
क्या किसी नयी दुनिया ,
को देख रहा है?
या अपना अतीत के रंगों,
से कल्पना की कलम ले,
अपना इतिहास लिख रहा है।
एक नन्हा बालक,
बड़ी उत्सुकता से,
उस वृद्ध को निरन्तर,
देख रहा था,
साथियों संग उसका,
मन नही लग रहा था।
धीरे धीरे वह वृद्ध,
के क़रीब गया,
उनके हाथों को,
कोमलता से छुआ,
पर कोई प्रतिक्रिया,
न पाकर, उसने,
वृद्ध को पुकारा,
बाबा , आप आकाश में,
क्या देख रहे हैं,
किसी को ढूंढ रहे हैं,
मैं कितनी देर से,
आकाश में देख रहा हूं,
मुझे तो कुछ भी,
दिखाई नहीं देता,
वृद्ध जैसे तंद्रा से जागे,
और मुस्कुरा कर बोले,
तुम अभी सूरज,
चांद, सितारे देखो,
जो मैं देख रहा हूं,
वह तुम्हें अभी,
नहीं दिखेगा,
खेलने के दिन है,
ख़ूब खेलों।
मैं तो अपने साथी,
के संग बिताए,
अनमोल पलों को,
याद कर,
उन सुनहरे पलों की,
तस्वीर बना रहा हूं।
अपने हृदय के पन्नों पर,
जिससे कोई उसको,
देख कर,
मेरी विवशता पर ,
हंस न सके।
लेखा वर्मा, गाज़ियाबाद।
